अनुपम भाई को सुनना एक बड़ा ही सुखद अनुभव हुआ करता था खासकर तब जब वो हिंदी में बोलते थे। उनकी कहानियाँ , उनकी उपमाएं कमाल की हुआ करती थीं और मुझे पूरा यकीन है की यह सब उन्होनें rustic idiom से गाँवों में रह कर सीखा होगा। लगभग यही आनंद रेणु जी के ऋणजल–धनजल में मिलता है। काका कालेलकर की जीवन गंगा के पाठ में वही आनंद है जो नदियों के जल के दर्शन, उनके जल के पान, और स्नान में है जिसे उन्होने नदियों के ध्यान, और स्मरण मात्र से जोड़ा था।
हम धन जल वाले लोग हैं या कभी थे। आज भी हमारी महिलाओं के सर पर घड़े दिखाई नहीं देते, इसलिए काफी कुछ बचा हुआ भी है।
तालाबों या पोखरियों का लिंग निर्धारण कैसे होता है, मुझे किसी ने संतोषजनक उत्तर नहीं दिया। पुष्करणियों का जैठ के साथ विवाह क्यों होता है, इसका भी उत्तर मुझे नहीं मिला है। पूछने पर लोग पुष्करणियों की विवाह की विधि बताते हैं पर विवाह का कारण नहीं बता पाते हैं, लेकिन परंपरा तो है जो कहीं न कहीं यह सिखाती हैं की यह पोखारियां उतनी हे पवित्र हैं जितना एक पिता के लिए उसकी पुत्री होती है।
परंपरा ने ही हमें नदियों के साथ रिश्ते बनाने पर मजबूर किया होगा। गंगा धीर गंभीर है तो वह माता है। कोसी चंचला है तो वह कन्या है, जो स्थिर रह ही नहीं सकती। नर्मदा उछलती कूदती आगे बढ़ती है तो वह रेवा है। ब्रह्मपुत्र बाबा है जो इधर काटता है तो उधर ज़मीन देता है आदि आदि।
ठीक ही कहते थे अनुपम भाई कि हमारी परंपरा को अंग्रेजों ने अपने फायदे के लिए तोड़ा। पर हमनें भी बचाने की कोशिश कहाँ की।वो लोग सिंचाई के बारे में क्या जानते थे? उनके यहाँ तो हर समय पानी बरसता रहता है। उन्होंने तकनीक का विकास अपनी जरूरतों के अनुसार हमसे सीखा और हमने अपनी परंपरा का त्याग कर के उनसे इंजिनीयरिंग सीखी। न ख़ुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम। न इधर के रहे न उधर के रहे।
अनुपम भाई, हम आप को सदा याद रखेंगें।