हल पर जूते
बैल की पीठ पर
प्रहार हुआ
पहले लाठी का
फिर जुबान का
चलता क्यों नहीं
क्या दूध नहीं पिया
अपनी मां का?
मां की याद आई
तो बैल सहम गया
मन ही मन बड़बड़ाया
मां का दूध
मुझे कहां नसीब था
मेरे हिस्से का दूध तो
हमेशा तूने ही पिया है
मैं तो
हमेशा निहारता रहा हूँ
भूखे पेट
मां के स्तनों
और तुम्हारी करतूतों को।
मां कहती थी
क्यों उदास होता है बेटा
मानव सेवा करना हमारा धर्म है
आदमी तो
हमेशा से बेशर्म है
उधर देखो
उस बकरी को
मानव सेवा के लिए
वह दूध के साथ साथ
अपने ही नहीं
अपने बच्चे के बदन को भी
सौंप देती है।
दूध से बड़ा
ममता का त्याग है
जो बकरी हमेशा करती है
मानवता
धर्म का उल्लंघन
हर बार करती है।
परंतु निराश मत हो बेटा
मानवता हमारे ही बल पलती है
अगर
हमारी नस्ल नहीं होती
तो यह मानवता
किसका दम भरती?
लेखक परिचयः
प्रबंधक, भा खा निगम, हनुमानगढ़, राजस्थान,
पेड़ का दुःख, घर व खेजड़ी बुआ आदि कृति,
पर्यावरण व प्रकृति पर लेखन,
वन विस्तार व वृक्ष मित्र सम्मान से सम्मानित