बात पुराने जमाने की है। थोड़े ज्यादा पुराने जमाने की। कोई ढाई अरब साल पुरानी या ऐसा कहिए कि 2,50,00,00,000 साल , तब पृथ्वी करीब दो अरब साल पुरानी थी। हमारे ग्रह पर जीवन शुरू हुए एक अरब साल तो बीत ही चुके थे तब बैक्टीरिया जैसे केवल एक कोशिका वाले आदि-जीव पनपते थे।
पृथ्वी पर जन्मे शुरुआती जीवों को अपना खाना बनाना नहीं आता था। धरती की ऊष्मा से रसायनों को खदका कर ये अपना पोषण करते थे। कुछ वैसे ही जैसे आज कुछ बैक्टीरिया दूध जमाकर दही बना लेते हैं या खमीर उठा कर डबलरोटी, सिरका या शराब तैयार कर लेते हैं। 'फरमेंटेशन' या किण्वन से।
उस सरल जीवन के लिये जो कुछ भी जरूरी था, वह या तो धरती से मिल जाता या हवा से खींच लिया जाता था। फिर जीवन की लीला में एक क्रान्ति आई, आज से कोई साढ़े तीन अरब साल पहले । इसके नायक थे साएनोबैक्टीरिया, यानी हरे-नीले रंग के बैक्टीरिया। ये अपनी रसोई खुद बनाते थे। बस सूरज से प्रकाश और हवा से कार्बन गैस खींच लेते थे। न जाने कितने हजार एकड़ भूमि पर फैलकर इन जीवों ने विशाल सार पटलो का रूप धर लिया था। आज हमारे पेड़-पौधे भी ठीक ऐसे ही जीते हैं।
जीवन का प्राण, का ईंधन ऐसा ही था। इस ईंधन को जलाने से कुछ धुआँ सा भी निकलता था, एक विषैली गैस निकलती थी। हमारे पूर्वज बैक्टीरिया इस गैस को साँस के रास्ते बाहर निकाल देते थे, ठीक उस तरह जिस तरह हमारे फेफड़े कार्बन डाइऑक्साइड गैस छोड़ते हैं, या हमारी आँत मल त्यागती है और गुर्दे मूत्र त्यागते हैं। यह विषैली गैस बहुत ही प्रतिक्रियाशील थी। धरती के हर हिस्से पर इसका रासायनिक प्रभाव पड़ता था। हर वस्त की इस गैस के साथ प्रतिक्रिया होती थी, जिससे यह सोख ली जाती थी। यानी इस कचरे का निपटारा सरल ढंग से हो जाता।
जीवन की यह रूपरेखा बहुत कामयाब हई। ये जीव बहुत फले-फूले और पृथ्वी पर इनका राज बीसियों करोड़ साल चला। फिर इनका राज मिटने लगा। कोई ढाई अरब साल पहले, जहाँ से हमारी बात शुरू हुई। इनकी संख्या बहुत बढ़ गई थी। उस विषैली गैस का उत्सर्जन भी बढ़ा था जो इनकी साँस से बाहर आती थी। वह अब धरती के तत्वों से प्रतिक्रिया करके ठिकाने नहीं लग पा रही थी। उसकी मात्रा पृथ्वी के वायमण्डल से लगातार बढ़ती गई इतनी कि प्रलय आ गया।
हमारे ग्रह और वायुमण्डल पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। कई तरह के जीव लुप्त होने लगे। कुछ वैज्ञानिकों का अनुमान है कि जीवन के इतिहास में यह सबसे विनाशक अध्याय था। शायद आज तक का सबसे बड़ा प्रलय, पृथ्वी का सबसे विशाल प्रदूषण। लेकिन पथ्वी पर जीवन खत्म नहीं हुआ। उसका रूप बदल गया। अब वे ही जीव पनप पाये जो वायुमण्ड़ल में मौजद इस विषैली गैस को सहन करना जानते थे। जो नहीं सीख पाये वे कुछ विशेष जगहों पर सीमित रह गए, जैसे दलदलों और समुद्र की गहराइयों में । हम जैसे प्राणियों की आँतों के भीतर ऐसे जीव अब भी मौजूद हैं।
दूसरे सभी जीवों ने कालान्तर में इस विषैली गैस का इस्तेमाल करना सीख लिया। उनकी हर कोशिका में इस विष को बुझाने वाले तत्व बनने लगे। हरे-नीले बैक्टीरिया के भी जिन प्रकारों ने इस विष को सहन करना सीख लिया वे आज भी जीवित हैं। आगे चलकर यही विषैली गैस जीवन का स्रोत बन गई।
यह विषैली गैस थी ऑक्सीजन।
इसे हम अब प्राणवायु कहते हैं। किसी भी ग्रह पर जीवन होने का असली प्रमाण तो उसके वायुमण्ड़ल में मुक्त ऑक्सीजन ही माना जाता है। पानी होने के संकेत तो अन्तरिक्ष के दूसरे हिस्सों में भी मिलते हैं, पर मुक्त ऑक्सीजन पृथ्वी के वायुमण्डल की खासियत है। वैसे तो हमारे ब्रह्माण्ड के रासायनिक तत्वों में ऑक्सीजन बहुतायत में है और इसका मूल रूप गैस का है। पर इसका स्वभाव चंचल है, प्रतिक्रियाशील है। ऑक्सीजन के बिना आग नहीं लगती। लोहे में भी इससे जंग लग जाता है।
इसी स्वभाव की वजह से यह गैस हमारे शरीर की कोशिकाओं को चलाती तो है ही, लेकिन इसके कुछ बागी अंश उत्पात भी मचाते हैं। इन्हें अंग्रेजी में 'फ्री रैडिकल्स' कहा जाता है। इस उत्पात से बचने के लिये जीवों ने 'एंटी-ऑक्सीडेंट' बनाना सीख लिया है, जो इन बागियों पर काबू करते हैं, प्रत्येक काेशिका में झाडू लगाते हैं । हर तरह के प्राणी की हर जीवित कोशिका में ऑक्सीजन के बागी 'फ्री रैडिकल्स' और सैनिक-रूपी 'एंटी-ऑक्सीडेंट' के बीच देवासुर संग्राम सा चलता रहता है। अगर हम जीवित हैं तो इसका कारण है इन बागियों पर हमारे सैनिक भारी पड़ते हैं। लेकिन आखिर में हर शरीर यह लड़ाई हार ही जाता है। बुढ़ापे के कई रोगों और फिर मृत्यु का एक कारण ऑक्सीजन में भी देखा जाता है। इसे 'ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस' कहते हैं। मृत्यु भी जीवन की तरह ही आक्सीजन की लीला की एक कड़ी है। मुक्त ऑक्सीजन वायुमण्ड़ल में बहुत समय टिकती नहीं है। हम जैसे प्राणी इसे अपनी साँस में इस्तेमाल करते हैं फिर भी हमारे वायुमण्डल का पाँचवाँ हिस्सा मुक्त ऑक्सीजन ही है। इसका कारण है वो वनस्पति जो इसे अपनी श्वास में छोड़ देते हैं।
आधी से ज्यादा प्राणवायु तो समद्री काई और हरे-नीले बैक्टीरिया ही पैदा करते हैं। कुछ अनुमानतः इस हिस्से को तीन-चौथाई पर रखते हैं। ठीक भाषा में कहें तो ऑक्सीजन वनस्पति का मल है जिसे वे त्याग देते हैं। यह उनका कूड़ा-करकट है, उनका जूठन। लेकिन हमारे लिये यही प्राणवायु है।
हम हर पल प्राणवायु अपने फेफड़ों से होते हुए शरीर के हर पोर तक खींचते हैं। यही प्राणायाम है और इसके लिये किसी योग गुरू की जरूरत नहीं होती। साँस टूटते ही जीवन का अन्त हो जाता है। प्रकृति में हमेशा ही किसी एक जीव का कूड़ा किसी दूसरे जीव के लिये 'संसाधन' का रूप ले लेता है। हर किस्म के जीव किसी भी तरह के साधन का एक हिस्सा भर इस्तेमाल कर पाते हैं। जो नहीं पुसाता उसे त्याग देते हैं। वही किसी और के काम आता है। इस सृष्टि में कुछ भी बेकार नहीं जाता। जीवन का कोई भी रूप दूसरे जीवों से लेन-देन किये बिना पनप ही नहीं सकता है।
जिधर जितना जीवन, उधर उतना ही आपसी व्यवहार। जीवन का जैसा अपार वैभव भूमध्य रेखा के इर्द-गिर्द के वर्षा वनों में होता है उतना जमीन पर और कहीं नहीं मिलता। समुद्र के भीतर प्रवालों में भी ऐसा ही सजीव मेला सदा लगा रहता है। दोनों के पीछे जीवों के बीच यही व्यवहार, यही व्यापार है। इन विलक्षण स्थितियों में जीवन के अनगिनत रूप एक-दूसरे से सटकर रहते हैं, एक दूसरे के विष को अमृत बनाने का काम सतत करते रहते हैं। कुछ भी बर्बाद नहीं जाता। वैसे कचरे की उपयोगिता समझने के लिये इतना दूर जाने की जरूरत नहीं है। हमारे शरीर में ही कई उदाहरण हैं, जैसे कैल्शियम, यानी चूना। हड्डी और दाँत तो इस पदार्थ से बनते ही हैं। कैल्शियम, शरीर के डाक विभाग की तरह भी काम करता है। यह मांसपेशियों के काम में अनिवार्य है, रक्तचाप पर काबू रखता है, घावों को सुखाता है और कोशिकाओं की दीवारों को मजबूत बनाए रखता है। अगर किसी व्यक्ति के शरीर में कैल्शियम की कमी हो तो उसकी कोशिकाएँ जीवन के रस बाँधकर नहीं रख पातीं। उसका रक्तचाप बढ़ने लगता है।
हर जीवित कोशिका से कैल्शियम का कचरा भी निकलता है। आज से कोई 50 करोड़ साल के पहले ही छोटे-छोटे, पानी में रहने वाले प्राणियों ने इस कूड़े को संजोकर इससे अपने शरीर के लिये कवच बनाना सीख लिया था। इस काल के जीवों के अवशेष जमीन और समुद्र के गर्भ से मिलते हैं। उनमें सीपीनुमा कवच के प्रमाण मिलते हैं। आज भी घोंघे जैसे जीव सीपी और शंख इसी तरीके से बनाते हैं।
कालान्तर में जीवन का क्रमिक विकास हुआ। बड़े-बड़े जीव अवतरित होने लगे। इन जीवों ने सीपियों और शंखों को अपने शरीर के भीतर ढाल लिया, अस्थिपंजर बनाना शुरू कर दिया। कैल्शियम से हड्डी और दाँत भी बनने लगे। मनुष्य भी ऐसे ही जीवों की सन्तति हैं, फिर चाहे हम हर बार सीधे खडे होने पर अपने उन अनाम पूर्वजों को उनकी कैल्शियम की साधना के लिये श्रद्धांजलि दें, या न दें। चाहे हम अपने पुरखों के प्रति कृतज्ञ हों या कृतघ्न, उनकी चूने से भवन बनाने की योग्यता हमें सहज ही मिल गई है। कोशिकाओं का मैला ही धीरे-धीरे उनकी शरीर-रूपी इमारत का गारा-चूना बन गया, सीमेंट बन गया।
आज बाजार में बिकने वाली सीमेंट जिस चूने के पत्थर से बनती है वह असल में करोडों साल पुराने समुद्री जीवों के जीवाश्म ही हैं, जैसे कोयला और पेट्रोलियम लाखों साल पहले भूगर्भ में समा गए पेड़-पौधों के अवशेष हैं। चूने से भरे ये पत्थर भूचाल के कारण समद्र तल से ऊपर उठ आये। ताजमहल में लगा संगमरमर इन जीवाश्मों से बने चूने के पत्थर का ही एक प्रकार है। विशाल भवन और गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ भी उसी कैल्शियम की मजबूती पर खड़ी होती हैं जिस कैल्शियम से मनुष्य की रीढ़ की हड्डी बनती है एक ऐसा पदार्थ जो हर कोशिका मैले की तरह निकाल देती है।
हमारा भोजन भी कचरे और साधन के इसी लेन-देन से आता है। हर जीव का शरीर पृथ्वी के उर्वरकों का एक छोटा सा संग्रह है मृत्यु होने पर यह रचना जब टूटती है तब ये उर्वरक किसी और जीव के आकार में फिर जन्म लेते हैं। धरती से उगे गेहूँ की रोटी हमारे पेट में जाती है हमारे मरने के बाद चाहे हमें दफनाया जाये या आग के हवाले किया जाय, उर्वरक घूम के फिर वहीं पहुँचते हैं जहाँ से कभी वे निकले थे जीवन इसी पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर चलता है।
मैल को साधन बनाने वाली यह जीवनलीला अनन्त नहीं है। उसकी एक सीमा होती है। प्राणी को ठीक पता नहीं होता कि यह हद कहाँ है। जो जीव यह दायरा लाँघ जाते हैं उनकी पूरी-की-पूरी प्रजाति अपने ही कूड़े के ढेर में दबकर समाप्त भी हुई है। जीवन की शुरुआत करने वाले बैक्टीरिया जैसे जीवों को ही ले लीजिए, जो अपनी बनाई ऑक्सीजन के शिकार हुए। पृथ्वी पर आज तक जितनी भी जीव प्रजातियाँ हई हैं उनमें से 99 प्रतिशत से ज्यादा काल के गाल में समा चुकी हैं
(क्रमशः)
(लेखक की प्रसिद्ध पुस्तक जल,थल और मल से उद्धृत।)
स्रोतः इंडिया वाटर पोर्टल - हिंदी