हम भागती हुई जिंदगी से
कुछ समय फुर्सत का चुराते हैं
रोजमर्रा के जरूरी कामों को
बडे अदब से सहेजते-सम्भालते हुए
घर में लगे
पेड-पौधों की उदासी झेलते हैं
और अपने प्रिय-पालतू की
नाराजगी को साथ लेकर
अपने घर को
निपट अकेला छोड
सैकड़ों किलोमीटर दूर
पहाडों से बहते हुए
उन झरनों को देखने जाते हैं
जो हमारी संवेदनाओं में
न जाने
कब के सूख चुके होते हैं।
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कवि परिचयः
एसोसिएट प्रोफेसर
हिंदी विभाग
राजधानी कॉलेज
राजागार्डन
दिल्ली - 110015