यह जो धूसर सी रेखा है
धरती की छाती पर
गत वैभव, हत गात
श्लथ और मरणासन्न,
नदी थी कभी।
कल कल क़रती
आप्लावित सौंदर्य, ऐश्वर्य और
जीवन जल से
निमग्न नित कल्याण में
अपने पुत्रों के।
इसकी ही गोद में खिली
इतिहास की जाने कितनी
महान सभ्यताएँ
मेसोपोटामिया से मोहनजोदड़ो तक
जगमगाए ना जाने क़ितने
वैभवशाली नगर ।
न जाने कितने साहसी युवाओं ने
नापा पृथ्वी का ओरछोर
हो कर इसकी ही
लहरों पर सवार।
न जाने जन्मी कितनी ही
प्रेमकहानियाँ इसके आँचल में
न जाने कितनी हीर
सो गयी इसकी गोद में
प्रेम में डूबी हुई।
इसके ही किनारे बैठ रचना की
किसी कालिदास ने
शकुंतला और
किसी तुलसी ने रामचरित मानस की।
यही है जननी न जाने
कितनी संस्कृतियों, कलाओं
गीतों और महाकाव्यों की।
कितने ही महान वीर
सोए हैं इसके किनारे
अपनी वैभव गाथाओं के
अंतिम पड़ाव पर शांत और निश्चल।
आज जो पड़ी है धरती पर धूलालुंठित
श्री विहीन, क्षीणकाय, जलविहीन
मरुभूमि सी।
शिकार अपनी ही संततियों की
लालसा और उपेक्षा की।
करते रहे जो इसे पददलित
निरंतर आगे बढ़ने की अपनी
अंधमहत्वाकांक्षा में ।
जिन्होंने बाँध डाली इसकी
सदानीरा धाराएँ,
बाँधों और पुलों से,
रोक दिए जीवनस्रोत
अनगिनत जलचरों के।
जला डाली सारी हरीतिमा
इसके कूल किनारों की
नष्ट कर डाले इसके उत्स
और भ्रष्ट कर दिया इसका
जीवनदायी जल।
आज यह है कहीं
सूखी बाँझ मरुभूमि
तो कहीं दुर्गन्ध भरा मल प्रवाह मात्र।
यह तो थी
जीवनरेखा सृष्टि की
थी अभिसिंचित यह धरती
इस की ही अमृतधार से।
रक्त की लालिमा और
प्रकृति की तमाम हरियाली में
लहराती तरलता इसी की ।
क्या सम्भव है कल्पना जीवन की
नदी के बिना भी।
क्या ख़बर एक नदी के मर जाने की
नहीं है उद्घोष
हमारे भी अंत का।
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कवि परिचयः
भारतीय राजस्व सेवा में बरेली में कार्यरत्
कविता संग्रह - कविता के बहाने।
निवासः 402/T-5 सिविटेक फ्लोरेंसिया,
रामप्रस्थ ग्रीन्स, वैशाली,गाज़ियाबाद 201010