हरसिंगार के दो पौधे
एक ही पौधशाला से
चले गये
दो अलग-अलग मंजिलों पर
दोनों को मिलीं
अलग-अलग आँखें
भिन्न-भिन्न हाथ
दोनों ने महकाये-चमकाये
अलहदा-अलहदा घर-द्वार
समय की सेज पर
जब झरते थे दोनों हरसिंगार
पृथक-पृथक राहों पर
चलने वाले राहगीर
थम जाते थे
रूक-ठहर कर अन्तस् तक
इत्मीनान से संजोकर भर लेते थे
हरसिंगार की दिव्य-गंध
और उनके नेत्रों के साथ-साथ
कंठ से भी झरता था
हरसिंगार ही
हरसिंगार ।
कवि परिचयः
एसोसिएट प्रोफेसर
हिंदी विभाग
राजधानी कॉलेज
राजागार्डन
दिल्ली - 110015