जब रात में सो रहे होते हैं पेड़
धूप और चिड़िया
के स्वप्न में डूबे होते हैं
वे आरियाँ चलाते हैं
अंधेरे में
चुपचाप
धड़ाम- धड़ाम....
वे गिरते जाते हैं पृथ्वी पर
सोए हुए पर प्रहार
कायरता है
धूप और चिड़िया
स्वप्न में ही
क्षत-विक्षत
वे ताकते हैं बस्तियों की ओर
सुलग उठती हैं बस्तियाँ
राख़ हो जाते हैं जंगल
सब अंधेरे में
उनका रुदन हवा के पेट को
चीरता
खोजता है जबाब....
नहीं बजता
पेड़ के पेट में पानी
मूकदर्शी चुप्पी में
लुका-छिपी
किसकी शामत है
डाल दें
शेर के जबड़े में हाथ
हवा, पानी, रोटी
निगल रहा है वह
फक़त
इमारतों की खातिर
झुग्गी-झोपड़ियों में
बसे लोग मारे जा रहे हैं
बुझ जाती हैं सुलगकर चिंगारियाँ
नीली बावड़ी में जा गिरती है चीख़
वे पेड़ काट रहे हैं
कट भी रहे हैं स्वंय
बुद्ध भी नहीं नहीं दिखा पायेंगे राह
फूट चुकी है इनकी आँखें
रात भर चलती हैं आरियाँ
भरी आँखों में
मैदान निकल आते हैं
भीतर रोते हैं पेड़
पुकारते हैं -'बचाओ ' ....
आरियाँ चल रही हैं रोटी पे
आरियाँ चल रही हैं बच्चों की नींदों में
आरियाँ चल रही है धरती के बछड़े पर
शिकारी ले जाता है रोहूँ का मध्य भाग
छोड़ जाता है
घास- फूस, पत्ता
बकरियाँ-भेड़ चरेंगी
बनेगा
उनके स्तनों में गुनगुना दूध
एकाद दिन
जब हम सो रहे होते हैं रात में
तब पेड़ पुकारते हैं हमें
नहीं होंगे पेड़
तब चीखेंगे हम
हम किसे पुकारेंगे ...
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